लीची की खेती

बिहार का लीची उत्पादन के क्षेत्र में विशिष्ट स्थान है। यहाँ देश की सर्वोत्कृष्ट लीची पैदा होती है। भारत में लीची के अन्तर्गत कुल क्षेत्र का आधा से अधिक भाग इसी राज्य खासकर इसके उत्तरी हिस्से (मुजफ्फरपुर, वैशाली, चम्पारण एवं समस्तीपुर) में स्थित है। आज इस राज्य में करीब 32,000 हेक्टेयर क्षेत्र में लीची के बाग हैं। इसकी उत्पादकता 8.2 मेन्टन/हेक्टेयर है। लीची के ताजे फल में 70 प्रतिशत भाग गुद्दा का होता है, जो खाने में स्वादिष्ट एवं मीठा होता है। इसमें चीनी 10-15 प्रतिशत तथा प्रोटीन 1.1 प्रतिशत होती है। यह विटामिन ‘सी’ का अच्छा स्रोत है।

जलवायु : लीची की फसल बागवानी के लिए आर्द्र जलवायु उपयुक्त है। वर्षा की कमी में भी आर्द्र जलवायु वाले क्षेत्रों में इसकी खेती की जा सकती है। इसके लिए हर दृष्टिकोण से उत्तरी बिहार उपयुक्त क्षेत्र है।

मिट्टी : लीची विभिन्न प्रकार की मिट्टियों में सफलतापूर्वक उगायी जा सकती है, परन्तु इसके लिए दोमट अथवा बलुआही दोमट मिट्टी, जिसका जलस्तर 2 से 3 मीटर नीचे हो, उपयुक्त समझी जाती है। भूमि काफी उपजाऊ, गहरी एवं उत्तम जल निकास वाली होनी चाहिए। इसके लिए हल्की क्षारीय एवं उदासीन मिट्टी अधिक उपयुक्त समझी जाती है।

लीची
लीची

लीची की जड़ों में लीची माइकोराईजा नामक फफूंद पाये जाते है। ये फफूंद अपना भोजन पेड़ से प्राप्त करते है एवं बदले में पेड़ों के लिए खाद्य पदार्थ तैयार करते है। साथ-ही-साथ ये कुछ अप्राप्य पोषक तत्वों को भी प्राप्य रूप में परिवर्तित कर देती है जिससे पेड़ों की वृद्धि अच्छी होती है एवं फल अधिक लगते हैं। अतः पौधा लगाते समय फरानी लीची के पौधों की जड़ के पास की थोड़ी मिट्टी का व्यवहार करना चाहिए।

नया बाग लगाना : अप्रील के शुरू में जमीन का चुनाव कर दो-तीन बार जुताई कर समतल कर दें। लीची का बाग वर्गाकार पद्धति में लगायें अर्थात् वृक्षों की कतारों तथा हर कतार में दो वृक्षों के बीज की दूरी बराबर हो। मई के प्रथम या द्वितीय सप्ताह में 4.5×4.5 मी० या 10 मी० की दूरी पर 90 से०मी० व्यास एवं 90 से०मी० गहराई वाले गढ़े खोदकर खुला छोड़ दें। जून के द्वितीय सप्ताह में निम्नलिखित खाद गढ़े से निकाली गई मिट्टी में मिलाकर पुनः गढ़े में भर दें।

कम्पोस्ट : 40 किलोग्राम
चूना (जहाँ चूने की कमी हो) : 2-3 किलोग्राम
सिंगल सुपर फास्फेट 2-3 किलोग्राम
म्यूरियेट ऑफ पोटाश : 1 किलोग्राम
थीमेट 10 जी० :  : 50 ग्राम

किस्में:
मई के प्रथम पक्ष में पकने वाली-देशी, अर्ली बेदाना।
मई के दूसरे पक्ष में पकने वाली-शाही, रोजसेण्टेड एवं पूर्वी ।
मई के अन्त से जून के प्रथम सप्ताह में पकने वाली-चायना, कसबा, मंदराजी, लेट-बेदाना।

मन पसन्द किस्मों का चुनाव कर पौधे जून-जुलाई में लगायें। 1-2 वर्ष उम्र के गुट्टी द्वारा तैयार किये गये भरपूर जड़ वाले स्वस्थ पौधों का चुनाव करें। बाग में लीची की विभिन्न किस्में जिससे फल शुरू से अन्त तक मिलते रहें। गढ़े की मिट्टी बैठने पर ही पौधे लगायें। पौधे लगाने के बाद जड़ की बगल में मिट्टी अच्छी तरह भर दे एवं शीध्र सिंचाई कर दें। अगर वर्षा नहीं हो तो हर 3-4 दिनों के अन्तर पर पानी दें।

बगीचे की देखभाल
लीची के पौधे कोमल होते हैं, अतः इसे जाड़े में पाले या गर्मी में तेज धूप से बचायें। यदि पाला गिरने की संभावना हो तो बाग की सिंचाई कर दें। छोटे पौधे को गर्मी एवं धूप से बचाने के लिए पूरब दिशा को छोड़कर तीन ओर से सरकंडे, टाट या ताड़ के पत्ते लगा दें।

प्रारंभ में नये पौधों की जानवरों से बचायें। इसके लिए बाग के चारों तरफ घेरा लगा दें या गढ़ा खोद दें।

वर्षा के पानी का निकास रखें। जाड़े में 15-20 दिनों पर एवं गर्मी में 10 दिनों के अन्तराल पर आवश्यकतानुसार सिंचाई करें।

बाग के उत्तरी एवं पश्चिमी किनारे पर हवा अवरोधक वृक्ष जैसे शीशम, जामुन, बीजू आम आदि की 2 या 3 कतार लगावें।

प्रतिवर्ष वर्षा के शुरू तथा अन्त में और जनवरी में नये बाग की जुताई करें।
नये बाग में अन्तर्वर्ती फसल (जैसे विभिन्न सब्जियाँ, दलहनी फसल आदि लगायें)
अगर पूरी सड़ी खाद उपलब्ध न हो तो कमी की पूर्ति खल्ली से करें

खाद एवं उर्वरक : प्रायः लीची 5-6 वर्षों में फूलने लगती है, लेकिन अच्छी फसल 9-10 वर्षों के बाद मिलती है। खाद देने का उपयुक्त समय वर्षा ऋतु का आरम्भ है। वृक्ष रोपने के बाद तालिका 1 में बतायी गई मात्रा के अनुसार खाद डालें। ऐसी मिट्टी में जहाँ जस्ते की कमी होती है और पत्तियों का रंग काँसे का सा होने लगता है, वृक्षों पर 4 किलो जिंक सल्फेट तथा 2 किलो बुझे चूने का 500 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।

पौधों का आकार : प्रारम्भिक अवस्था में पौधों को अच्छा आकार देने की दृष्टि से शाखाओं को समुचित दूरी पर व्यवस्थित करने हेतु छंटाई करें जिससे पौधों को सूर्य की रोशनी एवं हवा अच्छी तरह मिल सके।

खाद/उर्वरक प्रथम वर्ष प्रतिवर्ष बढ़ाई जानेवाली मात्रा (5-6 वर्ष तक) प्रौढ़ वृक्ष के लिए मात्रा
कम्पोस्ट 20.0 10.0 60
अंडी खल्ली 10 0.5 5.0
 नीम की खल्ली 0.5 0.5 3.0
 सिंगल सुपर फास्फेट  0.5 0.25 5.0
 म्यूरियेट ऑफ पोटाश  0.1 0.05 1.0
 कैल्सियम अमोनियम नाइट्रेट  0.5 2.0

 

फूलते हुए वृक्षों में किये जाने वाले कार्य
लीची के बाग की वर्ष में तीन बार (वर्षा के आरम्भ, अन्त तथा जनवरी) जुताई-कोड़ाई करें।

जाड़े में सिंचाई न करें। लौंग के आकार के बराबर फल होने पर सिंचाई शुरू करें और गर्मी मे हर 10-15 दिनों पर आवश्यकतानुसार पानी दें। पौधे में फूल लगते समय कदापि सिंचाई न करें। फल पकने लगे तो सिंचाई बन्द कर दें।

जबतक बाग में पूरी छाया न हो तबतक अन्तर्वर्ती फसल उगा सकते हैं। परन्तु फरवरी से मार्च तक सिंचाई वाली फसल न लगायें अन्यथा फूल एवं फल गिर जायेंगे।

जून के अंत तक पौधों में खाद अवश्य डाल दें क्योंकि जून के बाद खाद देने से फलन कम होने की संभावना रहती है।

कटाई-छंटाई : साधारणतः लीची में किसी प्रकार की कटाई-छंटाई की आवश्यकता नहीं होती है। फल तोड़ने समय लीची के गुच्छे के साथ टहनी का भाग भी तोड़ लिया जाता है। इस तरह इसकी हल्की काँट-छाँट अपने आप हो जाती है। ऐसा करने से अगले साल शाखाओं की वृद्धि ठीक होती है और नयी शाखाओं में फूल-फल भी अच्छे लगते है। घनी, रोग एवं कीटग्रस्त, आपस में रगड़ खाने वाली, सूखी एवं अवांछित डालों की छंटाई करते रहें।

फलों का फटना : लीची की कुछ अगात किस्मों, जैसे- शाही, रोजसेण्टेड, पूर्वी आदि में फल पकने के समय फट जाते है जिससे इनका बाजार भाव कम हो जाता है। लीची की सफल खेती में फल फटने की समस्या अत्यन्त घातक है। इसके लिए निम्न उपचार करे :

फल लगने के बाद पेड़ों के नजदीक नमी बनाये रखें।

जब फल लौंग के आकार के हो जाय तब नेफ्रथेलीन एसीटीक एसीड (NAA) नामक वृद्धि नियामक के 50 पी०पी०एम० घोल का छिड़काव 15 दिनों के अन्तराल पर करें। इससे फल कम गिरेंगे एवं नहीं फटेंगे।

फलन एवं आय : प्रायः 5-6 वर्ष बाद फूल लगना आरम्भ हो जाता है। फल तैयार हो जाने पर इसे गुच्छे में तोड़ें और अच्छी तरह पैकिंग कर बाजार में भेजें। प्रत्येक वृक्ष से 4000 से 6000 तक फल प्राप्त होते हैं। लीची में अनियमित फलन की समस्या आम की तरह गंभीर नहीं है। अतः इसकी खेती से हर साल आय मिलती रहती है। लीची के बागों से प्रतिवर्ष औसतन 50,000 से 60,000 रुपये प्रति हेक्टेयर की आमदनी होती है।

औद्योगिक दृष्टिकोण : लीची के फलों से जैम, शरबत, डिब्बा-बन्दी एवं सुखौता आदि तैयार किया जा सकता है। पर्याप्त लीची फलों का उत्पादन बढ़ाकर उत्तर बिहार में लीची पर आधारित उद्योग खड़े किये जा सकते है एवं इनका निर्यात कर विदेशी मुद्रा का अर्जन किया जा सकता है। लीची से संबंधित एक महत्वपूर्ण उद्योग मधुमक्खी पालन है। लीची के बाग के मधु का मूल्य साधारण मधु से अधिक होता है। लीची के बाग में मधुमक्खी पालने से फूलों के परागन में काफी सहायता मिलता है जिससे अधिक फल प्राप्त होते हैं।

लीची के निर्यात से संबंधित कुछ आवश्यक निर्देश

हमेशा उन्नत किस्मों की ही खेती के लिए चुनें। उत्तरी बिहार में अधिक उपज देने वाली किस्में है- शाही, चाइना एवं रोजसेन्टेड इत्यादि।

बाग लगाने के लिए पौधे-हमेशा किसी विश्वसनीय सरकारी/प्राइवेट नर्सरी से ही प्राप्त करें। हमेशा उन्नत किस्में ही लगायें।

प्रारम्भिक अवस्था में यदि वानस्पतिक वृद्धि सामान्य से अधिक हो तो 4-5 वर्ष के बाद नाइट्रोजन वाले उर्वरक का इस्तेमाल बन्द कर देंइससे वृक्षों के फलन में शीघ्रता आती है। यदि पौधे सामान्य हैं तो नाइट्रोजन वाले उर्वरकों का प्रयोग जारी रखें। इससे उनका संतुलित विकास होगा।

अक्टूबर माह से लेकर फूल आने एवं फल लगने तक बाग की सिंचाई नहीं करें। फल लगने के उपरान्त सिंचाई आरंभ करें एवं बगीचे की मिट्टी सदैव नम रखें। एक सप्ताह के अन्तराल पर सिंचाई करें।

लीची में खाद देने का उचित समय जून-जुलाई है। तोड़ाई के उपरान्त वृक्षों की आयु एवं जमीन की उर्वरता के अनुसार उर्वरकों का प्रयोग करें। 15 जुलाई तक खाद आवश्य डाल दें। कोशिश करें कि खाद तुड़ाई के उपरान्त शीघ्र ही जून के शुरू में डाल दिया जाय।

फलों का गिरना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है लेकिन जब फल अधिक गिरने लगें तब प्लानोफिक्स नामक दवा एक मी०ली० प्रति 4 लीटर पानी में घोलकर 15 दिनों के अन्तराल पर दो बार छिड़काव करें। मिट्टी में समुचित नमी रहने से फल कम गिरते है।

फलों का फटना कम करने के लिए बाग की मिट्टी में आवश्यक नमी बनायें रखें। इसके लिए फल बनने के बाद 6-7 दिनों के अन्तराल पर बाग की सिंचाई करें। पछुआ हवा से बचाव के लिए वायु-अवरोधक वृक्षों, यथा शीशम, जामुन, शाल आदि को दक्षिण-पश्चिम दिशा में लगायें। 10 पी०पी०एम० नैफ्रथलीन एसेटिक एसिड या 1 मिली० प्लानोफिक्स 4 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें। इसके अतिरिक्त जिंक (0.5 प्रतिशत) या बोरॉन (0.1 प्रतिशत) का इस्तेमाल लाभप्रद पाया गया है। सोलबर नामक दवा का 1 ग्राम एक लीटर पानी में घोलकर 15 दिन के अन्तराल पर दो बार छिड़काव करें।

लीची के फलों में तोड़ाई के बाद मिठास की वृद्धि नहीं होती है। अतः इसे पूर्णतया परिपक्व हो जाने के बाद ही तोड़ेपरिपक्वता का निर्धारण फलों के रंग के साथ-साथ किस्म विशेष की मिठास के आधार पर किया जा सकता है। कुछ फलों को चख कर यह देख लें कि लाली लिए हुये फल स्वाद में मीठे हुये है या नहीं।

फलों की तोड़ाई ठंढे वातावरण में किया जाना लाभप्रद रहता है, अतः इसका उचित समय 4 बजे सुबह से 8 बजे तक है या फिर रौशनी की उचित व्यवस्था रहने पर रात्रि के अंतिम पहर में भी तोड़ाई की जा सकती है। तोड़ाई करते समय यह ध्यान रखें कि अनावश्यक रूप से वृक्षों की टहनियाँ नहीं टूटे।

फलों के गुच्छे के साथ 40 से०मी० से अधिक लम्बी टहनी तोड़ने से अगले वर्ष के फलने पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है

फल या गुठली से बचाव के लिए साइपरमेथ्रिन या डेल्टामेथ्रिन (1 मि०ली० प्रति लिटर पानी में) या फेनभेल (1 मि.ली. प्रति 3 लीटर पानी में घोलकर) 15 दिनों के अन्तराल पर दो छिड़काव करें। फलों की तुड़ाई के 12-15 दिन पूर्व कीटनाशी दवाओं का छिड़काव अवश्य बन्द कर दें। अन्यथा दवा का अवशेष फलों को निर्यात के लायक नहीं रहने देगा।

माइट से नियंत्रण के लिए डाइकोफॉल (या केलथेन) नामक दवा (2 मि०ली० प्रति लीटर पानी में घोलकर) छिड़काव के पूर्व अक्रान्त टहनियों को छाँटकर अलग कर दें एवं छांटे गये भाग को जला दें।

तोड़े गये फलों को धरती पर कदापि न रखें। प्लास्टीक या पोलिथीन की साफ चादर बीछा कर फलों को एकत्र करें या सीधे प्लास्टीक क्रेट या टोकरी में रखकर पैकिंग गृह या स्थान पर भेज दे ताकि वहाँ फलों की ग्रेडिंग एवं पैकिंग हो सकें।

पैकिंग स्थान पर सबसे पहले अनावश्यक पत्तियाँ एवं डंठल आदि को अलग कर दिया जाता है। तब फलों को गुच्छे से अलग किया जाता है। अलग करते समय यह ध्यान दें कि हरेक फल को उपर 2 या 3 मि०मी० डंठल अवश्य लगा रहे। फलों को हाथ से अलग करने के बजाय उन्हें तेज कैंची की मदद से काट कर अलग करना बेहतर होता है।

ग्रेडिंग के दौरान आकार के अनुसार फलों को छाँटकर अलग-अलग वर्गों में विभक्त किया जाता हैं आमतौर पर छोटे (वजन में 20 ग्राम से कम) और फटे या दागदार फलों को छाँट कर अलग कर देते हैं।

आकार में 25 ग्राम या उससे बड़े फलों को अलग एकत्र कर ‘एक्ट्रा लार्ज’ साइज के फल की अलग श्रेणी बनायी जा सकती है। वर्गीकृत फल बाजारों में अधिक शीघ्रता से बिकते हैं तथा उनकी कीमत भी अच्छी मिलती है। निर्यात के लिए ग्रेडिंग आवश्यक है।

ग्रेडिंग के उपरान्त फलों को छिद्रयुक्त प्लास्टिक क्रेट/बास्केट में रखकर सल्फर डाईऑक्साइड गैस से धुम्रित करते है। इसके लिए फलों को एक प्रकोष्ठ में रखकर 500-600 ग्राम सल्फर (गंधक का चूर्ण प्रति टन फल के लिए) जलाया जाता है जिससे फलों को उपचारित करने हेतु वंछित गैस प्राप्त होती है। इस गैस युक्त प्रकोष्ठ में 30-40 मिनट तक फलों को रखा जाता है। उपचार के उपरान्त फल पीले हो जाते है। यह उपचार भंडारण के दौरान फलों को जीवाणुओं से बचाव के लिए आवश्यक है।

सल्फर डाईऑक्साइड से धुम्रित करने के उपरान्त फलों को 1 से 2 किलो के डब्बों में पैक किया जाता है। प्लास्टिक के छोटे प्यूनेट्स (250 से 500 ग्राम साइज वाली छोटी डालियाँ या खदोने में) रखकर भी इसे पैक किया जाता है। पैकिंग के उपरान्त पैकेट पर किस्म का नाम, ग्रेड एवं पैकिंग की विधि का उल्लेख आवश्यक है ताकि खरीददार को फलों की गुणवत्ता का पता चल सके।

ढुलाई में सहुलियत के लिए छोटे-छोटे डिब्बों को एक जगह रखकर प्लास्टिक की पतली पट्टियों से बाँधकर 800 से 1000 किलो तक के बड़े पैकेट बना लिये जाते है।

पैकिंग स्थान/गृह का तापक्रम 8-10 सेल्सियस रखा जाता है। फलों को चार-पाँच घंटा इस तापक्रम पर रखने के उपरान्त ही डब्बे में भरा जाता हैडिब्बों में भरने के बाद भी करीब 1-2 घंटे तक इस तापक्रम पर रखते है ताकि फल के भीतरी भाग (गूदा) का तापक्रम 100 सेल्सियस हो जाय। इसे प्रीकुलिंग की संज्ञा दी जाती है और शीत भंडारण के लिए फलों को तैयार करने के लिए यह एक आवश्यक प्रक्रिया है।

प्रीलिंग के बाद पैक किये हये फलों को शीतगृह में भंडारित किया जाता है। शीतगृह के अंदर का तापक्रम 4 सेल्सियस एवं सापेक्षिक आर्द्रता 90 प्रतिशत से अधिक होती है।

निर्यात के लिए रीफर भान या रेफ्रीजेरेटेड ट्रक द्वारा पैकेट को हवाई अड्डा या बंदरगाह पर ले जाया जाता है। रेफ्रीजेरेटेड हवाई या समुद्री जहाज द्वारा उसे नियत देश एवं स्थान पर पहुंचा दिया जाता है।

दूसरे देश में पहुँचने पर भी उसे शीतगृह में ही भंडारित किया जाता है जिसका तापक्रम 4 सेल्सियस होता है। यह भंडारण तब तक किया जाता है जब तक कि बिकने के उपरान्त फल उपभोक्ता तक न पहुँच जाय। यह सुनिश्चित किया जाता है कि शीत-भंडार का यह क्रम उपभोक्ता तक पहुँचने के पूर्व टूटने न पाये क्योंकि फलों को 30-40 दिनों तक ताजा एवं आकर्षक बनाये रखने का यही राज है।

लीची की खेती के समय प्रमुख कीट तथा प्रबंधन

लीची माइट | Eriophyes spp.

वयस्क तथा शिशु पत्तियों के निचले भाग पर रहकर रस सूचते हैं जिसके कारण पत्तियाँ भूरे रंग के मखमल की तरह हो जाती है तथा किकुड़ कर अंत में सूख जाती है। इसे “इरिनियम” के नाम से जाना जाता है। ये कीट मार्च से जुलाई तक काफी सक्रिय रहते हैं।

प्रबंधन
माइट से ग्रस्त पत्तियों, टहनियों को काटकर जला दें।
माइट से आक्रान्त पौधा नहीं लगायें।
इसका आक्रमण होने पर सल्फर 80 घुलनशील चूर्ण का 3 ग्राम या डायकोफॉल 18.5 ई०सी० का 2 मि०ली० या क्लोडिनाफोप प्रोपर्जिल 15 घुलनशील चूर्ण या फेनप्रौक्सिमेट 5 ई०सी० का एक मिली० प्रति लीटर पानी में घोल के साथ स्टीकर डालकर छिड़काव करें।

फल एवं बीज छेदक | (Fruit and Stone Borer)

फूल आने के समय मादा कीट पत्तियों पर अंडे देती है। अंडे से पिल्लू बाहर निकल कर नये फलों में घुस कर उसे खाते हैं। प्रभावित फल गिर जाता है। वातावरण में अधिक नमी रहने तथा फलों की तुड़ाई विलम्ब से करने पर पिल्लू फल के डंठल के पास छेद कर फल में घुस कर बीज तथा गुद्दे को खाते हैं। फलस्वरूप फल सड़ जाते हैं तथा उत्पादन प्रभावित होता है। ग्रसित पेड़ की उपज का बाजार मूल्य काफी घट जाता है।

प्रबंधन
बाग की सफाई पर ध्यान दें।
कार्टाप हाइड्रोक्लोराइड 50 एस०पी० अथवा एसिटामिप्रीड 20 एस०पी० 1 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से घोल के साथ स्टीकर डालकर फल बनने के समय छिड़काव करें।

दहिया कीट | Mealy Bug

इस कीट के शिशु और मादा पौधे को नुकसान पहुंचाते हैं। ये दोनों लीची के पौधे से कोशिका रस चूस लेते हैं जिसके कारण मुलायम तने और मंजरियाँ सूख जाती है तथा अधपके फल गिर जाते हैं। पौधे पर काले रंग के फफूंद भी विकसित हो जाते हैं जिसके कारण प्रकाश संश्लेषण की किया भी बाधित होती है।

प्रबंधन

पेड़ के आस-पास की मिट्टी की निकाई-गुड़ाई करने से इस कीट के अण्डे नष्ट हो जाते हैं।

पौधे के मुख्य तने के जमीन के पास वाले भाग पर 30 से०मी० चौड़ी अल्काथीन या प्लास्टिक की एक पट्टी लपेट देने तथा उस पर कोई चिकना पदार्थ जैसे ग्रीस लगाने से इस कीट के शिशु पेड़ पर नहीं चढ़ पाते हैं यह काम दिसम्बर माह में कर देना चाहिए क्योंकि इसी समय कीट के अण्डों से बच्चे निकलते हैं और पेड़ पर चढ़ जाते हैं।

इमिडाक्लोप्रीड 178 ई०सी० 1 मिली० प्रति 3 लीटर पानी में तैयार घोल के साथ स्टीकर मिलाकर छिड़काव करें।

ये भी देखें:
गेहूं की खेती कैसे करें
कैसे करें पपीता की खेती
मूंगफली की खेती कैसे करे
सहजन की खेती कैसे करे

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