बिहार राज्य में केले की खेती

बिहार राज्य में केले की खेती : फलों की खेती में केला का महत्वपूर्ण स्थान है। यह कार्बोहाइड्रेट का एक अच्छा स्रोत है। 100 ग्राम केला के गुदे से लगभग 67 कैलोरी ऊर्जा प्राप्त होती है। भारत का यह एक अति प्राचीन फल है, जिसका सामाजिक एवं आर्थिक पहलू बहुत महत्वपूर्ण है। भारत के उत्तर पूर्वी क्षेत्रों में केला औषधी के रूप में विभिन्न बीमारियों के इलाज हेतु प्रयोग किया जाता है। भारत के कुल फल उत्पादन में केला का हिस्सा 30.72 प्रतिशत है। यहाँकेला की खेती उष्ण एवं उपोष्ण जलवायु में सफलतापूर्वक की जाती हैकेला की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसके फल वर्ष भर उपलब्ध रहते हैं। इसकी खेती लघु एवं सीमांत किसानों के बीच में काफी लोकप्रिय है।

बिहार राज्य में उत्तर पूर्वी जिलों में बौने एवं लंबी जाति के केलों की खेती बैशाली, मुजफ्फरपुर, समस्तीपुर, बेगूसराय, नौगछिया, पूर्णियां, कटिहार आदि के व्यवसायिक स्तर पर की जाती है

उन्नत प्रभेदः| केले की उन्नत किस्में

1. पका खाने वाला लंबा प्रभेद : अल्पान, मालभोग, नेपाली, चिनिया, चीनी चम्पा एवं कन्थाली इत्यादि ।

2. सब्जीवाला प्रभेद : चककेला, बनकेला, विउसा, बतीसा।

3. सब्जी एवं पका खाने वाला प्रभेद : कोठिया, मुछिया, भोंस इत्यादि।

प्रवर्द्धन (केले के पौधो का चुनाव)

केला का प्रवर्द्धन सकर या कन्दर द्वारा होता है। उत्तम संवर्द्धन (टिशुकल्चर) द्वारा तैयार पौधे भी रोपण हेतु प्रयोग किये जाते हैं

सकर: स्वस्थ पौधे से रोग विमुक्त सकर खेती करने के लिए उपयुक्त माना जाता है। जिस सकर की पत्तियाँ तलवार की तरह नुकीली हो, वही सकर खेत में लगाने योग्य होता है।

कन्द: व्यवसायिक रूप से खेती करने के लिए कन्द ही लगाना चाहिएकन्द गाने से करीब 80 प्रतिशत पौधे में फलन (Fruting) एक समय होता है। कन्दर का वजन लगभग एक से डेढ़ किलोग्राम होना चाहिए।

उत्तक संवर्द्धन (टिशु कल्चर) विधिद्वारा केला का प्रवर्द्धन :

विगत कुछ वर्षों से उत्तक संवर्द्धन (टिशुकल्चर) विधि द्वारा केले की उन्नत प्रजातियों के पौधे तैयार किये जा रहे हैं। इस विधि द्वारा तैयार पौधों से केले की खेती करने का अनेकों लाभ है। ये पौधे स्वस्थ, रोग रहित होते हैं। पौधे समान रूप से वृद्धि करते हैं, अतः सभी पौधो में पुष्पण, फलन कटाई करीब-करीब एक साथ होती है, जिसकी वजह से वियान में सुविधा होती है। फलों का आकार-प्रकार एक समान होता है। लगाने का समय 25 जून से 10 जुलाई तक।

लगाने की दूरी : लगाने की दूरी का प्रभाव उत्पादन पर पड़ता है। उचित दूरी पर लगाने से सूर्य का प्रकाश समुचित रूप से पौधों पर पड़ता है, जिससे इसकी वृद्धि तीव्र गति से होती है। पौधे कीट व्याधियों के कम क्षतिग्रस्त होते हैं। कृषि के अन्य आवश्यक कार्य बाग से करने में आसानी होती है।

लम्बा प्रभेद: 2X2 मीटर की दूरी पर।
बौना प्रभेद : 1.5X1.5 मीटर की दूरी पर

खाद का प्रयोग : पोषक तत्वों के अभाव से घौंद एवं फलियाँ छोटी निकलती है, जिससे उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। किसी फसल की उत्पादकता इस पर निर्भर करता है कि इन पोषक तत्वों को किस समय एवं कितनी मात्रा में दिया जाय । खाद पौधे के जड़से 15 से.मी. की दूरी पर कुदाल से चारों ओर घेरा बनाकर डालें। घेरा में डाले गये खादों को मिट्टी से ढंक दें। अगर मिट्टी में उपयुक्त नमी न हो तो सिंचाई अवश्य कर देना चाहिए।

केले की खेती और सिंचाई
केले की खेती और सिंचाई

केले की खेती में सिंचाई प्रबंधन :

केला को अधिक पानी की आवश्यकता पड़ती है। सिंचाई का उत्पादन पर प्रभाव पड़ता है। इसके अभाव में पौधों की वृद्धि रूक जाती है। पौधे के फलन में अधिक समय लगता है। यदि फल आ गये तो घौद एवं छिमिया छोटी निकलती हैं, जिन्हें तैयार होने में अधिक समय लगता है। सिंचाई निम्न सारणी के अनुसार करना चाहिए।

केले की खेती और सिंचाई
केले की खेती और सिंचाई

केले की खेती में संकर का नियंत्रण:

केला के एक मातृवृक्ष में लगभग 10-13 सकर निकलते हैं। अगर इसे नही निकाला गया तो केला के बाग अंधकारमय दिखाई पड़ता है एवं पौधों को सामान्य रूप से सूर्य की प्रकाश एवं पोषक तत्व के सही रूप में प्राप्त हो जाना असंभव हो जाता है। सभी पौधे कमजोर हो जाते हैं एवं कीट व्याधियों से ग्रसित हो जाता है जिसके फलस्वरूप इनमें घौद एवं फल जो प्राप्त होते हैं, वे बहुत ही निम्न स्तर के होते हैं। अतः अधिक उत्पादन के लिए आवश्यक है कि इनके सकर का नियंत्रण किया जाय । केला में सकर का नियंत्रण “हम एक हमारे एक” के सिद्धांत पर किया जाता है।

केले की खेती में खर-पतवार नियंत्रण :

खर-पतवार के बाग में रहने के कारण उत्पादन में 20-30 प्रतिशत की कमी आती है। यह खर-पतवार पौधे से नमी, सूर्य की रोशनी, पोषक तत्वों के लेने में स्पर्धा करते हैं, जिनके कारण ये सभी चीजें पौधों को पूर्णरूप से प्राप्त नहीं हो पाती है, जिस कारण घौद एवं छिमियाँ मोटी प्राप्त होती है।

खर-पतवार कीट व्याधियों के घर भी है, जिनमें वे छिपे रहते हैं एवं समयानुसार पौधे एवं फलियों को क्षतिग्रस्त करते हैं, अतः इन्हें नियंत्रित कर उत्पादन में वृद्धि लायी जा सकती है

इन्हें नियंत्रित करने के लिए बाग की निकाई-गुड़ाई समायानुसार कुदाल से करते हैं। खर-पतवारों को चुनकर बाग से बाहर कर दें। राउण्ड अप या ग्यायसेल दवा का 10-12 मिली प्रति लीटर में घोल बनाकर दवा का छिड़काव करने वाले स्प्रेयर से खर-पतवारों को नियंत्रित करना चाहिए।

केले की खेती मेंकीट व्याधि नियंत्रण

केला का तना छिद्रक : यह केला का प्रमुख हानिकारक कीट है, जिसका प्रकोप सभी केला उत्पादक क्षेत्रों में पाया जाता है। इस कीट का प्रकोप पौधों पर सालों भर होत है, परंतु जून-जुलाई में इसका प्रकोप सर्वाधिक होता है

केला का कन्द छिद्रक: केला पर लगाने वाले प्रमुख कीटों में कन्द छिद्रक का विशेष स्थान है। यह कीट केला के पौधों के निचले भाग को (जमीन के अंदर) खाकर क्षति पहुंचाता है।

नियंत्रण:
केला का तना छिद्रक एवं कन्द छिद्रक कीट का नियंत्रण नीचे दी गई विधियों से करें

आक्रांत पौधों को कन्द सहित उखाड़ कर नष्ट कर दें।

बगीचे को साफ रखें।

बाग में पड़ी सूखी पत्तियों एवं अवांछित पौधों को निकालकर जला दें, क्यों िकये कीट के आश्रय में सहायक होते हैं।

खेत में गिरे थम को बाहर निकाल कर मिट्टी में गाड़ दें। नये सकर लगाते समय मिथाइल पराथियान (12 प्रति धूल) या क्लोरपारिफास (2 प्रति धूल) का 250 ग्राम प्रति गड्ढे की दर से मिला दें।

रोपाई के पूर्व सकर के निचले भाग को कीटनाशी दवा जैसे क्लोरोपारिफास 2 प्रतिशत दवा का 6 मि.ली. दवा 1 लीटर पानी में 10 मिनट तक डुबा देना चाहिए। ऐसा करने से इन कीटों द्वारा दिये गये अण्डे एवं पिल्लू मर जाते हैं।

इन कीटों का आक्रमण मालभोग, अलपान चीनी, चम्पा आदि प्रभेदों पर अधिक होता है। अतः जहाँ इन कीटों का प्रकोप प्रत्येक वर्ष होता है, उन क्षेत्रों में इनका प्रभेदों को न लगावे।

केला का फल-भंग : यह केला की पत्तियों एवं फलों को हानि पहुँचाने वाला एक प्रमुख कीट है। केला के पौधों पर इस कीट का प्रकोप मार्च-अप्रैल माह से शुरू होता है तथा अगस्त माह में इसके द्वारा पौधों को सर्वाधिक हानि पहुँचाती है।

नियंत्रण :
इ-डोसल्फान (35 ई० सी०) का 1.5 मि.ली. या फास्फामिडान (85ई. सी.) का 0.5 मि.ली. को प्रति लीटर पानी में घोलकर पौधों पर 15 दिनों के अंतराल पर उसे 4 बार छिड़काव करें।

मालाथियान 5 लीटर धूल का भूरकाव घौद निकलते समय कोमल फलियों पर करना श्रेयस्कर पाया गया है।

केला के प्रमुख रोग:

1. फल विगलन : यह रोग सर्वप्रथम कवक द्वारा होता है। कवक सर्वप्रथम पौधे की पतली जड़ों में प्रवेश करता है और बाद मे पूरे पौधे में फैल जाता है। प्रभावित पौधे बाद में सूख जाते हैं।

2. बन्ची टॉप : यह विषाणु जनित व्याधि है। इस रोग को माहु कीट फैलाने में सहायता पहुँचाता है। रोगी पौधों की पत्तियाँ छोटी होकर गुच्छे का रूप धारण कर ली है।

नियंत्रण :
माहु कीट को रोकने के लिए समय-समय पर छिड़काव करें।

किसानों को केले के बाग लगाने हेतु लागत का 50 प्रतिशत अधिकतम रू. 15,000 प्रति हे. 50:20:30 के अनुपात में तीन वार्षिक किश्तों में अनुदान देने की योजना है। बशर्ते दूसरे एवं तीसरे वर्ष में 75 एवं 90 प्रतिशत पौधे जीवित हों किसान अपना आवेदन-पत्र जमीन के पूर्ण विवरण खाता के साथ जिला कृषि पदाधिकारी/जिला उद्यान पदाधिकारी को दे सकते हैं।

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